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गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

सिक्के और डाक टिकट

मेरे पर्स में एक-दो-पाँच-दस-बीस वाले सिक्कों की कुल संख्या छह-सात से अधिक नहीं होती। उसे भी तुरन्त ही पाँच के नीचे लाना पड़ता है। वर्ना पर्स की उम्र पर संकट आ जाता है। उसे अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ जाता है। जेबों के साथ भी यही संकट है। अब सिक्के कौन अपने पास रखता है। अपने पर्स में कुछ नकद रखना हो तो 500 से ले कर पाँच दस रुपए के नोट रखना पसंद करता है। सिक्के अब आउट ऑफ डेट हो चले हैं। वैसे भी आज कल जमीन के ऊपर नकद भुगतान जितना होता है उससे बहुत अधिक यूपीआई हो चला है। नकद भुगतान पूरा का पूरा जमीन के नीचे का मामला हो चला है। जैसे रिश्वत देनी हो या चुनाव में वोटों के लिए नोट बाँटने हों। हालाँकि बिहार ने उसकी भी जरूरत खत्म करना शुरू कर दिया है। अब नोट सीधे वोटरों के बैंक खातों में भेजे जा रहे हैं जैसे स्त्रियों को और बेरोजगारों को। खैर!

लगभग यही किस्सा डाकटिकटों का है। एक वक्त हुआ करता था जब डाक टिकट रखे होते थे पर्स में। अब वे गायब हैं दो-चार रख भी लें तो रखे रखे खराब हो जाते हैं किसी लिफाफे चिट्ठी पर चिपकाने के काम नहीं आते। वैसे भी डाक कौन भेजता है। केवल जरूरी चीजें जैसे कानूनी और सरकारी कागजात। बाकी तो सब अब कूरियर सर्विस वालों के हवाले है। डाक टिकट की महत्ता घटाने में प्राइवेट कूरियर वालों की भूमिका महान है। सरकार भी यही चाहती है कि कम से कम लोग डाक के भरोसे रहें। डाक अब स्पीड पोस्ट हो गयी है उसे चाहो जो करवा लो, चाहे तो पार्सल, चाहे तो रजिस्टर्ड वगैरा वगैरा। अब डाक विभाग डाक में भेजे जाने वाले सामान के वजन और दूरी के हिसाब से फीस वसूल करता है।
 
तो मित्रो!
शताब्दी सिक्के और डाक टिकट पर अधिक उछलने की जरूरत नहीं है। कारपोरेट सेवा में जब जिन्दगी झंड होने लगती है तो बीच बीच में ऐसे जश्न करने पड़ते हैं जिससे अपने वाले झण्डू उछलते रहें।

-दिनेशराय द्विवेदी

बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

सामाजिक जीवन में बकवास का स्थान - दिनेशराय द्विवेदी

अच्छी बातें कोई भी कर सकता है। यहाँ तक कि बुरा से बुरा से व्यक्ति भी अच्छी बातें कर सकता है। इसी तरह कोई भी व्यक्ति बकवास भी कर सकता है। अच्छी और बकवास बातों पर किसी का एकाधिकार नहीं है।
 
बकवास बातों पर लोग कह देते हैं कि, अरे, छोड़ो यार! उससे कहाँ मुहँ लगना, बकवास कर रहा है, कभी कभी यह भी कह देते हैं कि कहाँ उस बकवास आदमी से उलझ रहे हो।
 
बकवास बहुत लोगों को जिन्दा रखे हुए है। उनमें सभी तरह के लोग हैं। उनमें साधारण लोग हैं, उनमें डाक्टर, वकील, इंजिनियर जैसे पेशेवर लोग हैं। उसमें अध्यापक और पुलिस वालेे हैं, दुकानदार और उत्पादक हैं। विज्ञापन बनाने वालों ने तो सिद्ध कर दिया है कि बकवास करने से बुरा से बुरा माल भी बाजार में खूब बेचा जा सकता है। इन लोगों में राजनीति करने वाले लोग हैं और ऐसे लोग हैं जो सभी स्तरों पर पहुँच चुके हैं। विश्व के बहुत सारे देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सेनापति वगैरा वगैरा अत्यन्त महत्वपूर्ण लोग भी कम नहीं हैं।

बकवास के अनेक प्रकार हैं, लेकिन वे सभी प्रकार इस तरह घुले मिले हैं कि बकवास करना भानुमति के कुनबे का महत्वपूर्ण गुण प्रतीत होने लगता है। वहाँ थोक से बकवादी लोग मिलेंगे। अभी तक किसी ने बकवासों का कोई वर्गीकरण नहीं किया है। यदि रामचन्द्र शुक्ल साहित्य का इतिहास लिखते समय यह नहीं समझ पाए कि साहित्य में बकवादी धारा और बकवादी युग भी हो सकते हैं तो मेरा बूता तो बिलकुल नहीं है कि मैं बकवादी धारा और बकवादी युगों की बात कर सकूँ। वैसे रामचंद्र शुक्ल ने हर युग के बकवादी साहित्य की पहचान भी की होती तो वे अधिक महान हो सकते थे। उनकी कीर्ति पताका साहित्य के बाहर भी फहराती नजर आती। 75 वर्ष के होने पर स्वर्ण जयन्ती मना लेने के बाद भी हमारे भक्तानांप्रियदर्शी प्रधानमंत्री जी ने कभी उनका नाम तक नहीं लिया। यदि शुक्ल जी ने बकवादी साहित्य की पहचान कर ली होती तो जब भी किसी स्कूल विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री का प्रवचन होता तो वे शुक्ल जी को महान घोषित करते और बताते कि देश को और कम से कम प्नोफेसरों को उनके आदर्शों पर चलना चाहिए। वे रामचंद्र शुक्ल के नाम का कोई स्मारक भी बनवा सकते थे।


भले ही बकवासों का वर्गीकरण न हुआ फिर भी लोग बकवासों को पहचान लेते हैं। तनिक देर में ही पहचान कर बता देते हैं कि क्या चीज बकवास है। कुछ पारखी लोग तो यह भी पहचान लेते हैं कि बकवास किस तरह टाइप की है। वह अस्थायी है या स्थायी है, वह क्षण भंगुर है या फिर सनतान टाइप की है। इस तरह बकवास का वर्गीकरण भी हो लेता है। किसी शोधार्थी ने ध्यान दिया होता तो अब तक इन स्वाभाविक वर्गीकरणों पर अध्ययन करता, शोध करता और एक नहीं अनेक शोध पत्र लिख सकता था। साहित्य में इन दिनों शीर्ष बहसें सनातन बकवास पर हो रही होती। कोई न कोई अवश्य सनातन बकवास के साहित्य का इतिहास जैसे महत्वपूर्ण विषय पर पीएचडी किए लोगों के वीसी बनने का चांस सबसे उत्तम होता।

मुझे तो लगता है कि साहित्यिक गोष्ठियों में साल की किसी गोष्ठी का विषय बकवास साहित्य होना चाहिए। जैसे "मोदी युग में बकवास साहित्य का स्थान" या यह भी रखा जा सकता है, भक्ति या रीतिकाल में बकवास साहित्य। प्रकाशक चाहें तो इन नामों की किताबें भी प्रकाशित कर सकते हैं। यहाँ तक कि बकवास साहित्य के इतिहास तक लिखे जा सकते हैं।जैसे हिन्दी के बकवास साहित्य का इतिहास"। अंग्रेजी में लिखना हो तो "ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ बकवास" जैसा टाइटल रखा जा सकता है। पता नहीं अब तक किसी प्रोफेसर या विद्यार्थी को यह क्यों न सूझा कि बकवास साहित्य विषय पर अनेक शोधें की जा सकती हैं। प्राथमिक शोध विषय "समाज में बकवास का स्थान" हो सकता है।

खैर, बकवास करते बहुत समय बीत चुका है, आपको भी इसे पढ़ते हुए कोई जोर नहीं पड़ा होगा, सर्र से पढ़ा होगा और बकवास दिमाग से होते हुए किसी नर्व के रास्ते पेट में उतर चुकी होगी। बकवास के पेट में उतर जाने से वह पेट को कभी खराब नहीं करती। यदि आपको यह अहसास होने लगे कि बकवास ने पेट में गैस टाइप कुछ उपद्रव किया है तो उसे सीधे रास्ते से निकालने की कोशिश कभी न करें, बल्कि सबसे अच्छा और सटीक उपाय यह है कि उसे मुहँ के रास्ते पहला पात्र मिलते ही उसके कान में उड़ेल दें।

शनिवार, 6 सितंबर 2025

भारतीय समाज में जाति, भाषा और राष्ट्रीयता का सवाल : दिनेशराय द्विवेदी

जोधपुर में हो रही आरएसएस की समन्वय बैठक में आरएसएस ने देश में जाति, भाषा, प्रांत और पंथ के नाम पर भेदभाव पैदा करने के षड्यंत्रों पर चिंता जताई। आरएसएस ने कहा कि देश में एकता और अखंडता को चुनौती देने वाली शक्तियां लगातार सक्रिय हैं, जो देश के लिए हितकारी नहीं हैं। इस तरह उनका मानना है कि जाति, भाषा, स्थानीय राष्ट्रीयता (प्रान्तीयता) और धर्म (पंथ) का उद्भव भारत की ऐतिहासिक परिस्थितियों से नहीं उपजा है बल्कि यह कृत्रिम है और इन सब भेदों के जनक तथाकथित षडयंत्रकारी शक्तियाँ हैं। इन षडयंत्रकारी शक्तियों से उनका तात्पर्य मुस्लिमों, ईसाइयों, सिख आतंकवादियों, सेक्युलर लोगों और कम्युनिटों से है। यही कुल मिला कर भारत में विपक्ष का निर्माण करते हैं। यदि ये सब षडयंत्र कर रहे हैं तो उससे उनका सीधा अर्थ यह है कि राज्य को उनका दमन करने का अधिकार है।


असल में संघ की यह दृष्टि ही एक कृत्रिम दृष्टि है। उसके नजरिए का आधार यह मिथ्या धारणा प्राचीन भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, उस पर इतिहास में बहुत दमन हुए और अब यह वक्त उस दमन का बदला लेने का है और उसे फिर से हिन्दू राष्ट्र बनना चाहिए। संघ का यह दृष्टिकोण ही उसे एक खतरनाक फासीवादी संगठन बना देता है। भारतीय समाज की संरचना ऐतिहासिक रूप से जटिल और बहुआयामी रही है। जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रीय पहचानों के अंतर्संबंधों ने एक ऐसा सामाजिक ताना-बाना बुना है जिसकी व्याख्या बिना वर्गीय विश्लेषण के अधूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा "हिन्दू राष्ट्र" की परिकल्पना और जाति, भाषा व प्रान्तीयता को "षड्यंत्र" के रूप में प्रस्तुत करना, एक प्रतिक्रियावादी परियोजना है जो सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखने का काम करती है।


यथार्थ तो यह है कि जाति और भाषाई राष्ट्रीयताओं का उदय और विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है, न कि कोई "षड्यंत्र"। ये पहचानें भारत में उत्पादन के खास तरीकों और सामाजिक संबंधों की उपज हैं। जाति व्यवस्था, जो मूल रूप से श्रम के विभाजन का एक रूप थी, शोषण के एक सुदृढ़ तंत्र में तब्दील हो गई। यह सामंती और पूर्व-सामंती उत्पादन प्रणालियों का अभिन्न अंग बन गई, जहाँ शासक वर्गों ने श्रमिक जनता के शोषण और दमन के लिए इन्हें एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।


इसी तरह, भाषाई और क्षेत्रीय पहचानें लंबे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास की परिणति हैं। पंजाबी, बंगाली, तमिल आदि राष्ट्रीयताओं का अस्तित्व एक सामाजिक यथार्थ है। इन्हें "उभारा" नहीं जा रहा, बल्कि ये पहले से मौजूद हैं। सवाल यह है कि इन पहचानों के साथ किस तरह का राजनीतिक-सामाजिक व्यवहार किया जाए।


आरएसएस की "हिन्दू राष्ट्र" की परिकल्पना एक अवैज्ञानिक, प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी परियोजना है। यह परियोजना भारत की वास्तविक, भौतिक समस्याओं—जैसे आर्थिक असमानता, शोषण, बेरोजगारी, गरीबी—से ध्यान भटकाने का काम करती है। एक कृत्रिम "हिन्दू" एकता का निर्माण करके, यह सामंती और पूंजीवादी ताकतों के हितों की रक्षा करती है, जिनके लिए जातिगत, धार्मिक और भाषाई विभाजन शोषण की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं।

सरसंघचालक का यह कहना कि जाति और भाषा के भेद एक "षड्यंत्र" हैं, वास्तव में इन गहरी जड़ें जमाए सामाजिक विभाजनों और शोषण के इतिहास को नकारना है। यह बयानबाजी शासक वर्गों के हित में है, क्योंकि यह मेहनतकश जनता की वास्तविक एकता—जो कि जाति, धर्म और भाषा की दीवारों को तोड़कर ही संभव है—को रोकती है। इसका उद्देश्य शोषितों और दलितों को एक ऐसी काल्पनिक एकता में बाँधना है जो वास्तव में शोषकों के वर्चस्व को ही मजबूत करती है।

आज हम जाति, भाषा या क्षेत्रीय पहचानों के अस्तित्व को नकारता नहीं सकते। बल्कि इन पहचानों के आधार पर होने वाले उत्पीड़न और शोषण का अंत करने के लिए इन्हें मान्यता देना और इनके खिलाफ संघर्ष करना जरूरी है। जाति और भाषाई उत्पीड़न, वर्गीय शोषण से अलग नहीं हैं, बल्कि उसी के विशेष रूप हैं। समाधान इन पहचानों के "दमन" में नहीं, बल्कि इनके आधार पर होने वाले भेदभाव और शोषण के उन्मूलन में निहित है। इसके लिए आवश्यक है कि जाति व्यवस्था, जो श्रम के विभाजन और शोषण का एक साधन है, का पूर्ण उन्मूलन जरूरी है। यह केवल सामाजिक जागरूकता और एक जनवादी और समाजवादी क्रांति से ही संभव है।

राष्ट्रीयताओं (प्रान्तीयताओं) और भाषा के अधिकार को सम्मान देना आवश्यक है। भाषाई और सांस्कृतिक राष्ट्रीयताओं की स्वायत्तता के अधिकार को मान्यता देना और उसे बढ़ावा देना आवश्यक है। एक स्वैच्छिक और वास्तविक संघ ही विभिन्न राष्ट्रीयताओं की एकता को मजबूत कर सकता है।

अंततः, सभी शोषितों—चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, भाषा या प्रांत के हों—की वर्गीय एकता ही सामंती-पूंजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्ष में जीत दिला सकती है। "हिन्दू राष्ट्र" का भ्रम इस वर्गीय एकता को तोड़ने का काम करता है।

आरएसएस की "हिन्दू राष्ट्र" की परियोजना और जाति-भाषा के भेद को "षड्यंत्र" बताने की कोशिश, भारत के शोषक वर्गों की एक राजनीतिक चाल है। इसका उद्देश्य जनता का ध्यान वास्तविक समस्याओं—पूंजीवादी शोषण, सामंती अवशेष, और साम्राज्यवादी नियंत्रण—से हटाकर काल्पनिक दुश्मनों की ओर मोड़ना है। एक यथार्थवादी दृष्टिकोण इन विभाजनों को नकारता नहीं, बल्कि उनके ऐतिहासिक और भौतिक आधार को समझते हुए, शोषण के इन सभी रूपों के खिलाफ मेहनतकश जनता की वर्गीय एकता को मजबूत करने पर जोर देता है।

सोमवार, 11 अगस्त 2025

नागरिकता की कसौटी पर लोकतंत्र: बिहार की मतदाता-सूची पर उठते सवाल

बिहार में चुनावी मौसम दस्तक दे चुका है, लेकिन इस बार चर्चा न तो घोषणापत्रों की है, न ही गठबंधनों की। इस बार बहस उस बुनियादी दस्तावेज़ पर है, जो लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है—मतदाता-सूची। भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 24 जून 2025 को जारी आदेश ने इस प्रक्रिया को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां नागरिकता और मताधिकार के बीच एक नई दीवार खड़ी होती दिख रही है।

 

लोकतंत्र की नींव पर प्रहार

 

बिना पर्याप्त तैयारी और प्रशिक्षण के, एक महीने के भीतर नई मतदाता-सूची तैयार करने क निर्देश ने प्रशासनिक अव्यवस्था को जन्म दिया। बीएलओ को फॉर्म भरवाने, फोटो और हस्ताक्षर लेने की जिम्मेदारी दी गई, लेकिन समय के दबाव में नियमों की अनदेखी आम हो गई। जनसुनवाइयों और रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि कई बार केवल आधार कार्ड और फोन नंबर लेकर फर्जी हस्ताक्षर के साथ फॉर्म अपलोड किए गए। यह प्रक्रिया न केवल अव्यवस्थित थी, बल्कि इसने लोकतंत्र की आत्मा—विश्वसनीयता और समावेशिता—को भी आहत किया है।

 

लाखों मतदाता सूची से बाहर: यह कैसा लोकतंत्र है?


1 अगस्त को जारी मसौदा सूची में 7.24 करोड़ मतदाता शामिल हैं, जबकि पहले की सूची में यह संख्या 7.89 करोड़ थी। यानी लगभग 65 लाख लोग गायब हैं। यह आंकड़ा सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि उन नागरिकों की पहचान है जिन्हें उनके मताधिकार से वंचित किया जा रहा है। क्या यह लोकतंत्र का अपमान नहीं?

 


नागरिकता साबित करने की शर्त: एक खतरनाक मोड़

 

अब मतदाताओं से अपेक्षा की जा रही है कि वे 11 दस्तावेज़ों में से कम से कम एक प्रस्तुत करें, जिससे उनकी नागरिकता सिद्ध हो सके। सुप्रीम कोर्ट में आयोग द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में कहा गया कि नागरिकता साबित करना अब मतदाता की जिम्मेदारी है। यह एक खतरनाक बदलाव है। अब तक नागरिकता की जांच केवल संदेह की स्थिति में होती थी, लेकिन अब यह एक सामान्य शर्त बनती जा रही है। इस तरह कानून की अवधारणा को पूरी तरह उलट दिया गया है। देश में निवास कर रहे व्यक्ति को यदि कोई (सरकार या कोई भी संस्था) भी कहता है कि वह नागरिक नहीं है तो इसे साबित करने की जिम्मेदारी उस किसी व्यक्ति, सरकार या संस्था की है। लेकिन इसे उलटा जा रहा है, यह जिम्मेदारी अब नागरिक पर डाली जा रही है, यह सरासर गलत है। यह पूरी तरह फासीवादी अवधारणा है और पूरी तरह असंवैधानिक ही नहीं है, बल्कि उन करोड़ों नागरिकों के लिए अपमानजनक है जिनके पास ये दस्तावेज़ नहीं हैं।

 

मनमानी का खतरा और लोकतंत्र की गिरती साख

 

निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को यह अधिकार दिया गया है कि वे तय करें कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं। यह अधिकार, यदि बिना पारदर्शी दिशा-निर्देशों के लागू होता है, तो मनमानी और भेदभाव की आशंका को जन्म देता है। विशेष रूप से गरीब, वंचित और हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए यह प्रक्रिया एक नए प्रकार के उत्पीड़न का माध्यम बन चुका है।

 

यह सिर्फ बिहार नहीं, पूरे देश की चिंता है

 

यह विशेष गहन पुनरीक्षण केवल बिहार तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में लागू होना है। ऐसे में यह सवाल उठाना जरूरी है—क्या हम एक समावेशी लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, या एक ऐसे तंत्र की ओर, जहां नागरिकता साबित करना ही नागरिक होने की शर्त बन जाए?

 

मतदाता-सूची का पुनरीक्षण यदि समावेशिता, पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ नहीं किया गया, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को आहत करेगा। नागरिकता कोई दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है—जिसे हर नागरिक अपने अधिकारों के माध्यम से जीता है। उसे कागज़ों की कसौटी पर तौलना, लोकतंत्र को कमजोर करना है।

इस प्रक्रिया पर पुनर्विचार करना आवश्यक है, क्योंकि सवाल सिर्फ मतदाता-सूची का नहीं, लोकतंत्र की आत्मा को जीवित बचाने का है।

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024

एक उद्योगपति की मौत

एक खेत मजदूर अक्सर खेत मजदूर के घर या छोटे किसान के घर पैदा होता है, मजदूरी करना उसकी नियति है, वह वहीं काम करते हुए अभावों में जीवन जीता है। उसकी आकांक्षा होती है कि उसके बच्चे जैसे तैसे कुछ पढ़ लिख जाएँ, खेत की मजदूरी करने के बजाए कहीं शहर में बाबू, या किसी कारखाने की नौकरी करें, वहीं घर वर बना लें और इस नर्क से निकल जाएँ। शहर के कारखानों में मशीनों पर काम करने वाले, लोडिंग अनलोडिंग में बोझा उठाने वाले, निर्माण में काम करने वालेे, खानों में काम करने वाले, मंडियों में बोझा ढोने वाले मजदूर चाहते हैं कि वे अपने इस नर्क से निकलें कोई सफेद कालर वाला काम कर लें। पर अधिकांश नहीं कर पाते और उसी नर्क में मर जाते हैं। किसान जिनके पास खेत हैं वे भी अपने खेतों में फसलें उगाते हुए , कर्जों और मौसम की मार झेलते हुए जीते रहते हैं उनमें से थोड़े बहुत निकल कर सफेदपोश भले ही हो जाएँ। पर रहते उसी किसानी में हैं।

इनके बाद आते हैं नगरीय टटपूंजिए वे हमेशा सपना देखते हैं कि डंडी मार कर या कोई तिकड़म कर के, या उनमें से कोई सरकारी नौकरी में लग गया हो तो रिश्वत खाते हुए थोड़ी बड़ी पूंजी इकट्ठा कर लें और ऐसा धंधा करें जिससे दिन दूनी और रात चौगुनी कमाई कर लें और वे नहीं तो उनके बच्चे ही ऐश की जिन्दगी जी लें। पर ऊपर की पायदान पर चढ़ने की कोशिश करने वालों में से ज्यादातर दूसरी तीसरी मंजिल पर चढ़ते हुए ऊँचाई से गिर कर घायल होते हैं, या मर जाते हैं और उनकी संतानें उसी नगरीय मजूरों की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं। कुछ जरूर ऐसे होते हैं जो बड़े पूंजीपतियों और अफसरों की चम्पी मारते हुए तीसरी चौथी मंजिल पर चढ़ने में कामयाब हो जाते है, पर उन्हें अपने ही लोगों की तरह नीचे गिरने और घायल हो कर पड़े रहने या मर जाने का भय हमेशा सताता रहता है। इन्हीं में वे लोग भी हैं जो ऊंचाई चढ़ने का स्वप्न नहीं देखते बस चाहते हैं किसी तरह उनके बच्चे उनसे थोड़ा बेहतर कर लें या उन्हीं की तरह जी लें और नीचे न गिरें।

इनके बाद बड़े सरकारी अफसर हैं जिन्हें आप ब्यूरोक्रेट्स कहते हैं इनसे नाभिनालबद्ध नेता हैं जो कभी इस और कभी उस सरकार में बने रहते हैं, या लगातार सरकार में होने का प्रयत्न करते रहते हैं। ये सभी इस मौके में लगे रहते हैं कि अपना कोई बड़ा उद्योग या बिजनेस स्थापित कर लें और नीचे की पायदान के लोगों के श्रम का उपयोग करते हुए अतिरिक्त श्रम का दोहन करते हुए टॉप के 10-20-50-100 या 1000 पूंजीपतियों की श्रेणी में पहुँच जाएँ।

सबसे ऊपर ये टॉप के 10-20-50-100 या 1000 पूंजीपति हैं, जो बाकी सबको हाँकते रहते हैं, देश की जमीन के ऊपर की और जमीन के नीचे की तमाम संपदा को निचोड़ते रहते हैं। इनकी सारी ताकत इस बात में लगी रहती है कि कैसे उनकी पूंजी दिन चौगुनी और रात अठगुनी होती रहे। इनमें कौन लोग शामिल हैं ये हर कोई जानता है।

मंदिर का एक निर्धन संपत्तिहीन पुजारी, ज्योतिषी और कथावाचक जो टटपूंजिए बनियों की बिरादरी के मंदिर की पूजा करने की नौकरी करता था, उसके दोनों बेटे सरकारी अध्यापक हो गए थे। बड़े बेटे के घर दूसरे बच्चे ने जन्म लिया। पहली बेटी थी जो पैदा होने के चंद दिन बाद मर गयी। दूसरे के बाद अनेक बच्चे पैदा हुए लेकिन चार बेटे और दो बेटियाँ जीवित रहे। बड़े बेटे को जब गणित और भाषा पढ़ने हुनर आ गया तो घर में रखी धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला। स्कूल में भर्ती होने के साथ ही विज्ञान से साबका पड़ा। वह दोनों के बीच झूलता हुआ जब इस हालत में पहुँचा कि उसे जीवन जीने के लिए कुछ करना पड़ेगा, तब उसने बहुत सपने देखे। कभी कलट्टर जैसा अफसर बनने का, वैज्ञानिक बनने का पर वह पुजारी, ज्योतिषी, कथावाचक और अध्यापक कतई नहीं बनना चाहता था, क्योंकि इन पेशों की हकीकत जान चुका था।

उसका ध्यान इंजिनियरिंग की तरफ था लेकिन उसे जीवविज्ञान पढ़ना पड़ा। कुछ दिन उसके आसपास के लोग उसे डाक्टर कहते रहे कि शायद बन जाए। लेकिन वह लोगों को सचाई बताने के चक्कर मेंं पत्रकार हो गया। भीतर घुस कर देखने पर पता लगा कि वे अर्धसत्य के वाहक भर हैं। ज्यादातर सच वह होता है जो अखबारों के मालिक बताना चाहते हैं। क्रूर सच तो शायद कभी बाहर ही नहीं आता। तब उसने सब कुछ छोड़ कर वकील बनना चुना जो मजदूरों की पैरवी करना चाहता था। वकालत करते हुए उसे 45 साल से ज्यादा हो गया है।

रतन टाटा मर गया। वकील की पत्नी कल रात काम से निपटने के बाद मोबाइल पर कोई वीडियो देख रही थी। वकील के पूछने पर उसने बताया कि रतन टाटा के बारे में बता रहे हैं, बहुत बड़ा उद्योगपति था। वकील बोला, वह देश के टॉप के उद्योगपति घराने का बेटा था, उससे ऊपर जाने की इस दुनिया में कोई जगह नहीं थी। उसने दुनिया के टॉप उद्योगपतियों में शामिल होने की कोशिश जरूर की होगी, पर सफल नहीं हुआ। लेकिन नीचे गिरने से बचता रहा, इस तरह गिरने से बचना ही उसकी सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। हम अपने पिता दादा से बेहतर स्थिति में आ सके और अपने से नीचे की श्रेणी के लोगों के साथ जो अन्याय होता है उस को थोड़ा बहुत कम करने की कोशिश करते हुए, अपने जीवन के लिए जीने के साधन जुटाते हुए जी रहे हैं। हमारे बच्चे हम से बेहतर मजदूरी करते हुए जी रहे हैं और चाहते हैं कि समाज एक ऐसी शक्ल ले ले जिसमें सभी यथाशक्ति काम करें और उन्हें अपनी जरूरत की तमाम चीजें मिलती रहें। जिससे समाज के तमाम लोग बराबरी महसूस करते हुए जी सकें। न कोई छोटा हो न महान हो। न कोई टाटा बिरला, डालमिया, अम्बानी, अडानी हो और न कोई बोझा ढोते हुए या मशीन चलाते हुए बीमार हो कर बिना इलाज और भोजन, कपड़ा और छत के अभाव में जिए। हम थोड़ा बहुत हमारे इस लक्ष्य से काम करते भी हैं। मुझे लगता है हम बेहतर हैं और थोड़ा बेहतर करने की कोशिश करते रहते हैं। ये अखबार, ये मीडिया कभी नहीं छापता कि कोई मजदूर अभावों में मर गया। कभी किसी दुर्घटना में मजदूर मर जाते हैं तो उनकी केवल संख्या छपती है इस तरह कोई विरुदावली नहीं गाता। ये उन्हीं टॉप के 10-20-50-100 या 1000 लोगों के चाकर हैं। ये टॉप के 10-20-50-100 या 1000 लोग समाज में न रहें, एक वर्ग के रूप में हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएँ। मेरी सोच में दुनिया में कोई वर्ग ही नहीं रहे, हमारा समाज वर्गहीन हो जाए तो साँस में साँस आए। मनुष्य और प्रकृति दोनों साँस लेते हुए चैन से जी सकें।

इति संवाद:।।
11.10.2024 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

भारत के संवैधानिक जनतंत्र और कानून के शासन के प्रति वकीलों का दायित्व

यह  लेख  त्रेमासिक  पत्रिका   "एक और अंतरीप"  के अप्रेल-जून 2024 के न्यायपालिका पर केन्द्रित अंक   में प्रकाशित हुआ है- 
-दिनेशराय द्विवेदी

कानून के शासन (Rule of Law) का सिद्धान्त बहुत पुराना है। पुरातन काल में इसके सूत्र देखे जा सकते हैं। यह एक राजनीतिक आदर्श है जिसके अंतर्गत किसी देश, राज्य या समुदाय के सभी नागरिक और संस्थान एक समान कानूनों के प्रति उत्तरदायी हैं, जिसमें विधि निर्माता और नेता भी शामिल हैं। इसे कभी-कभी इस तरह भी कहा जाता है कि "कोई भी कानून से ऊपर नहीं है"। यह कानून के समक्ष सभी नागरिकों की समानता का समर्थन करता है तथा सरकार के एक गैर-मनमाने रूप को सुरक्षित करते हुए अधिक सामान्य रूप से सत्ता के मनमाने उपयोग को रोकता है। कानून के शासन को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि न्यायालय हों, कानूनों के उल्लंघन को रोकें और जनता को न्याय प्रदान करें। न्याय प्रशासन में न्यायालय के समक्ष व्यक्तियों के पक्ष को रखने के लिए कानूनी समझ वाले पेशेवर व्यक्ति ‘वकील’ की आवश्यकता होती है। हम कल्पना कर सकते हैं कि जब से जहाँ जहाँ कानून का शासन अस्तित्व में आया होगा तब से लोगों की पैरवी के लिए वकीलों की उपलब्धता अवश्य रही होगी। एक वकील को कानून की जानकारी के साथ साथ सामाजिक, राजनीतिक और तकनीकी मामलों की भी जानकारी होना जरूरी है, क्योंकि उसके बिना वह किसी भी न्यायार्थी की पैरवी करने में सक्षम नहीं हो सकता। कानून के अतिरिक्त इन सब विषयों का ज्ञान वकील को एक विशिष्ट व्यक्ति में परिवर्तित कर देता है जो समाज में अनेक रूप से अपनी भूमिका अदा करते हुए अपने दायित्वों को निभा सकता है।

वकीलों ने देश और समाज में सदैव उच्चस्तरीय भूमिका अदा की है और अपने सामाजिक दायित्व को निभाया है। यही कारण है कि हमारे देश की आजादी के आंदोलन में, संविधान के निर्माण और भारत में लोकतंत्र की स्थापना में वकील समुदाय का बड़ा योगदान रहा है। आजादी के आंदोलन में हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जिन्होने देश की स्वतंत्रता की लड़ाई का नेतृत्व किया, स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल, बाल गंगाधर तिलक, जी.के.गोखले, लाला लाजपत राय, देशबंधु चितरंजन दास, सैफुद्दीन किचलू, मोतीलाल नेहरू, राधा बिनोद पाल, भूलाभाई देसाई आदि का प्रमुख योगदान रहा है। संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए नियुक्त समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर के साथ समिति के सदस्य अलादी कृष्ण स्वामी अय्यर, एन. गोपलास्वामी अय्यंगार, बी. आर. आमदकर, के. मुंशी, मोहम्मद सादुल्ला, बीएल माइनर, एन. माधव राव, तथा टीटी कृष्णमाचारी आदि व्यापक विशेषज्ञता वाले प्रतिष्ठित वकील थे। इन सबका प्रयास था कि हम एक आदर्श जनतांत्रिक संविधान का निर्माण कर पाएँ, जिसके फलस्वरूप देश में जनतांत्रिक व्यवस्था संभव हो। आजादी के बाद भी देश के राज्य प्रशासन में वकीलों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। न्याय प्रशासन में तो उनके बिना न्याय की परिकल्पना अकल्पनीय है। यही कारण है कि वकील समुदाय को देश के संविधान और जनतंत्र का संरक्षक कहा जा सकता है। लेकिन प्रश्न यह है कि, क्या आज वकील समुदाय अपनी यह भूमिका को ठीक से निभा रहा है? इसके लिए हमें समूची दुनिया की राज्य व्यवस्थाओं, जनतंत्र की स्थापना उसके विकास आदि पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालना आवश्यक प्रतीत होता है।

पिछले दिनों भारत में 18वीं लोकसभा के लिए निर्वाचन सम्पन्न हुए। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनाव अभियान भारत को दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने और राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के बहुसंख्यक धार्मिक राष्ट्रवाद और विकास के मुद्दों के साथ आरम्भ किया। वहीं विपक्ष ने एक गठबंधन संक्षिप्त नाम इंडिया (I.N.D.I.A.) के साथ आरंभ किया, जिसके घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे के मामले में मतभेद थे। इंडिया ने अपने मुद्दे जनता की वास्तविक समस्याओं के इर्द-गिर्द खड़े किए। उन्होंने अपना प्रचार बेरोजगारी, और महंगाई की समस्याओं के साथ साथ अमीरी गरीबी की तेजी से बढ़ती हुई खाई और गरीब, पिछड़े, दलित और आदिवासियों को राहत देने के मुद्दों के साथ साथ संविधान बचाओ जनतंत्र बचाओ के मुद्दे से आरंभ किया। इंडिया गठबंधन ने अपना एक सामान्य घोषणा पत्र जारी किया, इसके सभी घटक दलों ने भी अपने विशिष्ट मुद्दों के साथ इन गठबंधन के मुद्दों को अपने-अपने दलों के घोषणा पत्रों में स्थान दिया। इससे जनता के बीच यह संदेश गया कि ये दल जनता के मुद्दों पर विभाजित नहीं, अपितु एक हैं।

देश का लगभग सारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रेस सत्ताधारी दल भाजपा और उसके गठबंधन एनडीए के साथ नजर आये। उनका प्रचार ही उनमें छाया रहा। विपक्ष के समाचारों को इस मुख्य धारा के मीडिया और प्रेस ने या तो स्थान ही नहीं दिया और स्थान दिया तो ऐसे कि वह सत्ताधारी दल के गठबंधन के प्रचार के पीछे छुपा रहे। सोशल मीडिया पर सत्ताधारी दल ने बाकायदा आईटी सेल के जरिए अपना प्रचार जारी रखा। दूसरी ओर सोशल मीडिया का गैर मुख्य धारा वाला किन्तु सबसे अधिक पढ़ा, सुना, देखा जाने वाला हिस्सा इंडिया के साथ खड़ा हो गया और सही तथ्यों को जनता के बीच पहुँचाने लगा। इंडिया गठबंधन के दलों ने अपने सीमित साधनों से जनता के बीच पहुँचने के भरपूर प्रयास किए। धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि विपक्ष की लड़ाई गठबंधन के साथ जनता खुद लड़ रही है। इन स्थितियों में भाजपा का प्रचार विकास और अपनी सरकार की उपलब्धियों के मुद्दों को पीछे छोड़ पूरी तरह साम्प्रदायिक मुद्दे पर उतर आया। जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया वह भारत के चुनाव इतिहास में सबसे निचले स्तर का था।

चुनाव के नतीजे आने के पहले आए मुख्य धारा के मीडिया के एक्जिट पोल नतीजे भाजपा की 370 से अधिक स्थानों पर और गठबंधन के चार सौ से अधिक स्थानों पर कब्जा करने के दावों की पुष्टि कर रहे थे। तीन दिनों तक सत्ताधारी पार्टी और गठबंधन की भारी जीत का माहौल बना रहा, वहीं इंडिया ब्लाक एक्जिट पोल को बनावटी बताता रहा। लेकिन जैसे ही वास्तविक नतीजे आने शुरु हुए तो परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। भाजपा को अपने बूते बहुमत नहीं मिला, वह 240 सीटों पर सिमट गयी और गठबंधन तीन सौ के आँकड़े तक नहीं पहुँच पाया।

नतीजों से स्पष्ट हुआ कि देश की जनता का बहुमत भाजपा और उसके गठबंधन के समर्थन में नहीं है। अपितु जनता तक पहुँचने के साधनों की हीनता के बावजूद विपक्षी गठबंधन इंडिया को खूब समर्थन मिला। यह साफ हो गया कि जनता बढ़ती हुई अमीरों की अमीरी और गरीबों की गरीबी के कारण उत्पन्न आर्थिक खाई से चिंतित है। जनता ने इस बात का भी नोटिस लिया कि पिछले दस सालों में जनता के जिन हिस्सों ने अपनी आवाज सत्ता तक पहुँचाने के लिए आंदोलन का सहारा लिया उनका कानून और सुरक्षा बलों की ताकत से दमन किया गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तेजी से अंकुश कसा गया। जनता ने देश में जनतंत्र और संविधान दोनों को वास्तविक खतरा महसूस किया। इस चुनाव ने भारत में जनतंत्र और संविधान के महत्व को पुनर्स्थापित किया। इससे देश में संविधान और जनतंत्र बचाने का आंदोलन संगठित और तेज हुआ। लगभग पूरे देश में Save Democracy और जनतंत्र बचाओ के नाम पर नागरिकों के स्थानीय फोरम खड़े हुए, जिन्होंने इसके लिए लगातार काम करने के संकल्प लिए। यदि हम पूरे विश्व पर एक नजर दौड़ाएँ तो देखते हैं कि जनतंत्र बचाओ आंदोलन लगभग प्रत्येक जनतांत्रिक देश में मौजूद है। हर देश की जनता के कुछ हिस्से जनतंत्र के विरुद्ध लगातार खतरा महसूस करते हैं।

हम इतिहास में झाँकें तो पाते हैं कि चार-पाँच सदी पहले पूरी दुनिया में राजा-महाराजाओं का राज्य था। दुनिया भर में अर्थ व्यवस्था कृषि के इर्दगिर्द घूमती थी। कृषि उपज को मानवोपयोगी बनाने के लिए जो उद्योग करना पड़ता था वे सभी काम हस्तशिल्पी किया करते थे। एक वर्ग व्यापारियों का था जो जरूरत से अधिक उत्पादन को कम उत्पादन करने वाले क्षेत्रों में पहुँचाया करता था। आबादी बढ़ने के साथ मनुष्य निर्मित वस्तुओं की मांग भी बढ़ती गयी जिससे वस्तुओं का मेन्युफेक्चर आरंभ हुआ। छोटे-छोटे कारखाने खड़े हुए जहाँ एक मालिक के अधीन अनेक लोग काम करते थे। तकनीक के विस्तार, भाप के इंजन के आविष्कार ने उद्योग क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। बड़ी मात्रा में उत्पादन संभव होने लगा। तेजी से कारखाने खड़े होने लगे जिनमें काम करने के लिए मानव श्रम की आवश्यकता थी। यह मानव श्रम उद्योगों के स्वामी पूंजीपतियों को केवल कृषि क्षेत्र से ही मिल सकता था। लेकिन लोग वहाँ अपनी जमीन और जमीन के मालिकों से बंधे थे। इस मानव श्रम को इन बंधनों से मनुष्य की मुक्ति ही उपलब्ध करा सकती थी और इसके लिए जनतंत्र की जरूरत थी। इस तरह जनतंत्र प्रारंभिक रूप से पूंजीपतियों की आवश्यकता थी। इससे किसानों और खेतों में काम करने वाले मेहनतकशों को बंधन मुक्ति मिल रही थी, व्यापारियों के लिए मुक्ताकाश खुल रहा था। यहीं से उस सामंती दुनिया में जनतंत्र की खिड़की खुली और उससे बाहर निकली हवा पूरी दुनिया में फैल गयी।

पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में जनतंत्र का दुनिया में विस्तार हुआ। जनतंत्र लाने में पूंजीपतियों का साथ किसानों और मजदूरों ने दिया था। इसने उन्हें जमीन और बंधुआ श्रम से मुक्ति दी, किन्तु कारखानों में जिस तरह से उनसे कम से कम मजदूरी में अधिक से अधिक काम लिया जाता था। सारी पूंजीवादी दुनिया में काम के घंटे कम करने और जीने लायक मजदूरी पाने के लिए मजदूरों के स्वतः स्फूर्त आंदोलनों ने जोर पकड़ना आरंभ कर दिया। मजदूर संगठित होने लगे। समाजवाद की विचारधारा ने जोर पकड़ना आरंभ किया।

दुनिया भर में जनतंत्र को लाने वाली पूंजीवादी व्यवस्था के अपने अंतर्विरोध थे। पूंजीपतियों के बीच तेजी से उत्पादन बढ़ाने और अधिक से अधिक लाभ कमाने की होड़ बढ़ गयी थी। हर पूंजीवादी देश चाहने लगा कि दुनिया का अधिक से अधिक बाजार उनके कब्जे में रहे जिससे उनकी अर्थ व्यवस्था हमेशा प्रगति करती रहे। उत्पादन को खपाने के लिए नए बाजारों की जरूरत हमेशा बनी रहती थी जो उपनिवेशों में उपलब्ध थे। उपनिवेशों पर उनका कब्जा बना रहे यह प्रतिस्पर्धा पूंजीवादी देशों के बीच बढ़ती रही। पूंजीवाद की एक खामी यह भी है कि यह मजदूरों को कम से कम वेतन देता था और अपनी पूंजी बढ़ाता रहता था। एक वक्त ऐसा आ जाता था कि उत्पादन तो खूब होता था लेकिन उत्पादों को खरीदने के लिए जनता के पास धन की कमी हो जाती थी। बाजार मालों से भरे रहते थे लेकिन खरीददारों का अभाव होता था। इस तरह बाजार में मंदी प्रकट होती और अनेक छोटे उद्योगों को बरबाद करती और बड़े उद्योग पनपते रहते। उद्योगों की बर्बादी से उत्पादन सिकुड़ता और मंदी कम होती। लेकिन वह हर 10-12 सालों में लौट आती। अपने माल को खपाने के लिए नए बाजारों की तलाश आरंभ हो गयी। इसी के साथ पूंजीवाद ने साम्राज्यवादी स्वरूप ग्रहण कर लिया। पूंजीवादी देशों के बीच बाजार कब्जाने की इस होड़ ने दुनिया को प्रथम विश्वयुद्ध में झोंक दिया। जुलाई 1914 से नवंबर 1918 तक दुनिया विश्वयुद्ध की ज्वाला में जलती रही।

मार्क्स-एंगेल्स ने 1848 में “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र” के प्रकाशन के साथ एक नारा दिया था, ‘दुनिया के मजदूरों एक हो¡’ मार्क्सवाद ने वैज्ञानिक समाजवाद और साम्यवाद के आदर्श लक्ष्य दिए थे। मजदूर आंदोलन के विकास के साथ ही मार्क्सवाद पर दुनिया भर में बहस तेज हो गयी। लेनिन ने मार्क्सवाद और मार्क्स के बाद पूंजीवाद के साम्राज्यवाद में विकसित होने का अध्ययन कर बताया कि मजदूर क्रान्ति एक देश में भी हो सकती है और साम्राज्यवादी युद्ध के बीच यह पूरी तरह संभव है। लेनिन के नेतृत्व में रूस के मजदूर वर्ग ने किसानों की मदद से यह कर भी दिखाया। पहली मजदूर क्रान्ति रूस में सम्पन्न हुई। इस क्रान्ति से पहला मजदूर-किसान राज्य सोवियत संघ अस्तित्व में आया। उन दिनों भारत में आजादी का आंदोलन प्रारंभिक रूप में था। रूसी क्रान्ति ने तमाम उपनिवेशों में आजादी के आंदोलनों को प्रेरित किया। मजदूर किसान आजादी के आंदोलनों से जुड़ने लगे। भारत के आजादी के आंदोलन पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ। भगतसिंह और उसके साथियों का क्रान्तिकारी आंदोलन पूरी तरह साम्यवादी आदर्शों से प्रभावित था और उनका दल भारत में मजदूर किसानों का राज्य चाहता था।

पहले विश्वयुद्ध ने दुनिया के बाजारों का साम्राज्यवादी देशों के बीच बँटवारा कर लिया था। इसके समापन से दुनिया ने चैन की साँस ली। लेकिन मंदी तो पूंजीवाद का अभिन्न लक्षण है। वह निश्चित अंतराल के बाद लौटती है। पूंजीवाद पूंजीपतियों को और अमीर बनाता चला जाता है, जनता संसाधन हीन हो कर गरीबी के समुद्र में डूबने लगती है। किसी भी देश का यह आंतरिक आर्थिक अंतर्विरोध जनता में लगातार असंतोष उत्पन्न करता है और जन आंदोलन जन्म लेते हैं। ये आंदोलन सत्ताधारी पूंजीपति वर्ग को बैचेन करते हैं और जनतंत्र जो वास्तव में पूंजीपतियों के कब्जे में होता है इसका कोई वास्तविक स्थायी हल नहीं देता। हम हमारे देश के अनुभव से जानते हैं कि लोकतंत्र में पूंजीवाद भ्रष्टाचार के अंडर करंट का जन्मदाता है। इस भ्रष्टाचार के जरीए पूंजीपति जनतंत्रों की तमाम राजकीय मशीनरी को अपने हक में इस्तेमाल करने की ताकत पाता है। वह अपने धन-बल पर राजनेताओं की बड़ी फौज खड़ी करता है जो लगातार उसके लिए काम करते हैं। धन के बल पर वह राज्य की मशीनरी पर कब्जा कर लेता है। मेहनतकश जनता हाथ मलते रहती है। धीरे-धीरे अपने अनुभव से जनता सीखती है और जनतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए जनतांत्रिक देशों की पूंजीपतियों के पक्ष में काम कर रही सरकारों के विरुद्ध बड़े आंदोलन खड़े करने लगती है। सरकार को जनता के पक्ष में काम करने को बाध्य करती है। यह सब पूंजीपतियों को रास नहीं आता। सरकारें इन आंदोलनों के दमन पर उतर आती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार जनतंत्र का मूल है, लेकिन यही आजादी जनता के आंदोलनों की ताकत भी है। सरकार को इस अधिकार को सीमित करना पड़ता है। लेकिन जनतंत्र में सरकार की सबसे बड़ी मजबूरी है कि उसे चार-पाँच साल के अंतराल से जनता द्वारा चुना जाता है। जनता की नाराजगी इन चुनावों में अभिव्यक्त होती है और सरकारों के बदले जाने के रूप में प्रकट होती है।

जनतंत्र में पूंजीवादी दलों को चुनाव का बार बार सामना करना पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि पूंजीवादी दल जनता को आर्थिक मुद्दों पर संगठित होने से दूर रखे। इसके लिए जनता को अन्यान्य मुद्दों पर बाँटे रखने का काम ही उन्हें और पूंजीवाद को सुरक्षित रख सकता है। वे नस्ल, राष्ट्रीयता, धर्म और अन्य आधारों पर अपनी राजनीति खड़ी करते हैं, उसके लिए सिद्धान्त गढ़ते हैं। उनके आधार पर जनता के समूहों को एक दूसरे के प्रति नफरत सिखाते हैं और उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करते हैं।

पूंजीवाद की जनता को बाँटे रखने की राजनीति ने यूरोप में एक नयी विचारधारा फासीवाद को जन्म दिया बेनिटो मुसोलिनी को इसके जन्म का श्रेय जाता है और एडॉल्फ हिटलर को इसे पूरी तरह विकसित करने का। फासीवादी विचारधारा उदारवाद, साम्यवाद,और रूढ़िवाद का विरोध करती है अपनी नयी रूढ़ियाँ कायम करती है। फासीवाद का लक्ष्य एक राष्ट्रवादी तानाशाही का निर्माण है जो एक राष्ट्र को एक साम्राज्य में बदलने के लिए एक आधुनिक, स्वनिर्धारित संस्कृति के तहत अर्थव्यवस्था, सामाजिक संरचना और संबंधों को विनियमित करती है। फासीवाद रोमांटिक प्रतीकवाद, जन-लामबंदी, हिंसा के सकारात्मक दृष्टिकोण और सत्तावादी नेतृत्व को बढ़ावा देने, और पड़ोसी देशों को शत्रु घोषित कर उनके प्रति आक्रामक रुख के प्रदर्शन के माध्यम से समर्थन एकत्र करता है। प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामों का लाभ उठाने और सत्ता पर काबिज होने के उद्देश्य के प्रतिफल में यह विचार पहले इटली और बाद में जर्मनी में पनपा और इसने दो पड़ोसी देशों में दो जग प्रसिद्ध तानाशाह दिए। दूसरे विश्वयुद्ध को भड़काने में इन दोनों देशों ने प्रमुख भूमिका अदा की। इसने दुनिया भर को दहला दिया। अंत में समाजवादी सोवियत संघ की मदद से पूंजीवादी देशों ने इन दोनों तानाशाहियों का अंत किया। जिन जिन देशों पर इन दोनों ने कब्जा किया था। उन देशों को सोवियत सेनाओं ने फासीवादी दमन से मुक्त किया, जिससे वहाँ चल रहे मजदूर किसानों के आंदोलनों और कम्युनिस्ट पार्टियों को बल मिला और इन देशों में एक नयी जनतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई, जो व्यवहार में पूंजीवादी थी। लेकिन वह पूंजीपतियों को असीमित लूट की छूट नहीं देती थी। इस व्यवस्था में मजदूर-किसान वर्गों के प्रतिनिधि साम्यवादी थे। यह एक नयी परिस्थिति थी, जिसमें यह सोचा गया कि किसी समाजवादी क्रान्ति के बिना भी वहाँ पूंजी के विकास के साथ साथ समाजवाद का विकास किया जा सकता है। इस व्यवस्था को सोवियत संघ के प्रमुख जोसेफ स्टालिन ने जनवादी जनतंत्र का नाम दिया।

वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में राज्य के तीन प्ररूप समाने आए। जनतंत्र, जनवादी जनतंत्र और फासीवादी राज्य । बड़े जनतंत्रों में साम्राज्यवादी पूंजीवाद प्रमुख अर्थव्यवस्था होती है, जिसमें बड़े पूंजीपति लगातार प्रगति करते रहते हैं। इस जनतंत्र का स्वरूप इतना उदार रहता है कि वह अधिकांश जनता को जीने की सामान्य सुविधाएँ देता रह सकता है। लेकिन उसमें यह क्षमता दूसरे देशों के शोषण की कमाई से उत्पन्न होती है। ऐसे देशों में बड़े जन आन्दोलनों का अभाव रहता है। यह यदा कदा संकटों से जूझते और उन्हें हल करते हुए जीवित रहते हैं। इस तरह के देशों की अर्थव्यवस्था का बड़ा भाग हथियारों के उत्पादन पर टिका रहता है जिसे वे दूसरे देशों को बेचते हैं। दुनिया में युद्धों का बने रहना इन उद्योगों के जीवित रहने का प्रमुख आधार बना रहता है। विकासशील पूंजीवादी देशों में जनतंत्र की स्थिति भिन्न होती है। इनकी अर्थव्यवस्था को हमेशा मदद की जरूरत रहती है, जिसके लिए वे साम्राज्यवादी देशों की ओर देखते हैं, और उनके शोषण का शिकार बने रहते हैं। जनता में असंतोष बना रहता है। जिसके कारण जन आन्दोलन पनपते रहते हैं और पूंजीवाद की प्रगति बाधित होती है। इन देशों में राष्ट्रवाद के नाम पर फासीवाद अपनी जड़ें जमाने कोशिश में रहता है और जनतंत्र को खतरा बना रहता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जिन देशों ने जनवादी जनतंत्र को अपनाया उनमें से आज भी चीन, क्यूबा और वियतनाम जैसे देश इस व्यवस्था को बनाए रखे हैं। इनमें चीन ने अपनी राज्य व्यवस्था को जनवादी जनतांत्रिक तानाशाही का नाम दिया। क्योंकि वह पूंजी-निगमों को असीमित स्वतंत्रता नहीं देता अपितु उन्हें अपनी राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था में दखल देने से रोकता है। इन देशों में पूंजीवाद की प्रगति धीमी और अर्थव्यवस्था अन्य पूंजीवादी दुनिया की अपेक्षा सुस्त रहती है। लेकिन जनता को जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की कमी नहीं रहती। उन्हें भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा का कोई अभाव नहीं होता। जनता शोषण मुक्त जीवन जीती है। हालाँकि पिछले कुछ दशकों में चीन ने अपनी व्यवस्था को कुछ उदार बनाते हुए उत्पादन को जो गति दी है। उससे पूंजीवादी विश्व चौंक गया है और डरा हुआ है कि वह वैश्विक अर्थव्यवस्था का सिरमौर न बन जाए।

फासीवाद का उदय इटली और जर्मनी में हुआ और दूसरे विश्वयुद्ध ने इन दोनों देशों में फासीवाद का अंत कर दिया। फासीवादी शासन में इन दोनों देशों ने जिस तरह अपनी और युद्ध के द्वारा कब्जाए गए पड़ोसी देशों की जनता का दमन किया, लाखों लोगों का नरसंहार किया, वह आज भी दुनिया को आतंक और भय से दहला देता है। फासीवाद को दुनिया ने नकार दिया। लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था हमेशा फासीवाद में अपनी समस्याओं का समाधान देखती है। जिसके कारण फासीवादी प्रवृत्ति को मरने नहीं देती और उसे खाद-पानी और जमीन मुहैया कराती रहती है। इतिहास का अनुभव बताता है कि मेहनतकश वर्गों मजदूरों और किसानों ने ही हमेशा फासीवाद का मुकाबला कर उसे नाकों चने चबवाए हैं, परास्त किया है। यही कारण है कि आर्थिक संकटों के समय पूंजीवादी देशों में फासीवादी प्रवृत्ति सर उठाती रहती है। फासीवाद के इस खतरे ने जनतंत्र को हानि पहुँचाई है और लगातार पहुँचाता रहता है। विगत दो दशकों से इस फासीवादी प्रवृत्ति ने पूरी दुनिया में जनतंत्र को संकट में डाला हुआ है। यही कारण है कि पूंजीवादी देशों की जनता हमेशा जनतंत्र को खतरे में पाती है। लगभग सभी पूंजीवादी जनतांत्रिक देशों में इसी कारण जनतंत्र बचाओ आंदोलन उठ खड़े हुए हैं और धीरे-धीरे आपस में संयोजित हो कर एक वैश्विक आंदोलन के रूप में संगठित होने की ओर आगे बढ़ रहे हैं।

भारत के संविधान ने इसे एक जनतांत्रिक गणतंत्र बनाया है और नागरिकों को समता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध, धर्म की स्वतंत्रता, संस्कृति और शिक्षा संबंधी तथा संवैधानिक उपचारों के मूल अधिकार दिए हैं। इसके साथ ही राज्य के लिए नीति निदेशक सिद्धांत दिए हैं। जो संविधान की प्रस्तावना में प्रस्तावित आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना हेतु राज्य का मार्गदर्शन करते हैं और भारत में परिकल्पित सामाजिक क्रांति के लक्ष्य हैं जो भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। इन कारणों से हमारा संविधान हमारे जनतंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दस्तावेज है जो सभी अन्य ग्रन्थों और विधियों से ऊपर है।

हम समझ सकते हैं कि पिछले दस वर्षों का शासन हमारे जनतंत्र को उस दिशा की ओर ले जा रहा था, जिसमें जनता के जनतांत्रिक अधिकार सीमित होते जा रहे थे। शासन तंत्र फासीवादी लक्षणों वाले सर्वसत्तावाद की ओर आगे बढ़ रहा था। जनता की तकलीफें बढ़ रही थीं और उसके जीवन पर संकट बढ़ते जा रहे थे। सत्ताधारी दल के चार सौ पार के नारे ने स्पष्ट कर दिया था कि केवल जनतांत्रिक अधिकार ही नहीं पूरा संविधान ही खतरे में है। जनता के एक बड़े हिस्से ने इस खतरे को पहचाना और सत्ताधारी दल को बहुमत प्राप्त करने से रोक दिया। फिर भी वह अपने सहयोगी दलों की मदद से पुनः सत्तासीन है। 18वीं लोकसभा का पहला सत्र आयोजित करने के पहले ही सरकार और उसके मंत्रियों ने जो निर्णय लिए हैं, उनसे नहीं लगता कि सत्ताधारी दल ने इन चुनाव नतीजों से कोई सबक सीखा है। नयी गठबंधन सरकार अपने किसी पुराने फैसले फिरने को तैयार नहीं है।

आज जब हमारे संविधान और जनतंत्र पर खतरा आसन्न स्पष्टतः दिखाई दे रहा है वकील समुदाय में अनेक लोग संविधान और जनतंत्र को बचाने की लड़ाई में आगे दिखाई देते हैं। वे अपने सामाजिक दायित्व को ठीक से निभा रहे हैं। लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। वकील समुदाय के एक बड़े हिस्से में अवसरवाद का विचार बहुत गहरे पैठा हुआ है। यह उन्हें तात्कालिक लाभों के लिए संविधान और जनतन्त्र को खतरा बनी शक्तियों के खेमे में ले जा कर खड़ा कर देता है तथा जनतंत्र और संविधान की रक्षा की लड़ाई को कमजोर बनाता है। ऐसे ही अवसरवादी तत्वों के प्रभाव में हमारी बार कौंसिलें और बार एसोसिएशन गैर जनतांत्रिक निर्णय ले बैठती हैं। ऐसे लोगों को यह समझने समझाने की आवश्यकता है कि वकील का व्यवसाय भी तभी जीवित और असीमित बना रह सकता है जबकि जनतंत्र और संविधान बचे रहें। कानून का शासन बचा रहे। इसी संविधान और जनतंत्र ने हमें अपने मुवक्किलों की पैरवी का अधिकार दिया है। हमारा यह अधिकार भी तभी बचा रह सकता है जब संविधान, जनतंत्र और कानून का शासन बचा रहे। जो वकील जनतंत्र और संविधान की इस लड़ाई का हिस्सा बन चुके हैं उनका एक कर्तव्य यह भी बनता है कि वे अपने समुदाय के भीतर जागरूकता अभियान चलाएँ और अधिक से अधिक अपने वकील साथियों को जनतंत्र, संविधान और कानून के शासन को बचाए रखने के इस संघर्ष के पक्ष में खड़ा करें।

(समाप्त)

शनिवार, 13 जुलाई 2024

सड़ांध

उसकी शादी हुई एक लड़के से, वह उसके साथ शादी मेंं पाँच महीने रही।

वह काम पर था। इन पाँच महीनों में भी वह कितने दिन उसके साथ रहा। फिर वह जंग में मारा गया। चंद दिन जिस पुरुष के साथ वह रही, कुछ महीने उसके माता-पिता के साथ। कितना अटैचमेंट रहा होगा उसका इन सबसे?

फिर वह जंग मारा गया। सरकार ने मैडल दिया और कुछ धन जो पूरा एक करोड़ भी नहीं था। क्या होता है एक करोड़? मुम्बई दिल्ली को तो छोड़िए कोटा जैसे शहर में इस रकम में आप एक ढंग का घर तक नहीं खऱीद सकते। वह मैडल और धन के साथ पतिगृह छोड़ कर अपने माता पिता के साथ रहने आ गयी।

पति उसके लिए दुःस्वप्न से अधिक नहीं था। लेकिन किसी की पत्नी होने का बिल्ला पूरे जीवन उसके साथ रहेगा। उसका दूसरा जीवनसाथी यदि कोई हुआ तो हमेशा यह याद रखेगा। लाया हुआ धन तो खर्च होना ही है। एक मैडल उसके पास है जिसे वह अपने दुःस्वप्न को याद रखने के लिए ले गयी।
 
इस सब पर एक लाइन लगातार छापी जा रही है, "पत्नी मैडल साथ ले गयी" क्यों न ले जाए? उसे छोड़ कर क्यों जाए? जैसा की हिन्दू कानून में था पहले कि यदि पुरुष मर जाए तो वह केवल पति की संपत्ति का उपभोग कर सकती है। वर्ना उत्तराधिकार के बतौर वह पति के पिता को वापस मिल जाएगी। यानी विधवा पुत्रवधु यदि ससुराल में रहना चाहे तो उसे कमरा, कपड़ा और खाना मिलेगा। उसकी भी कोई गारंटी नहीं। माँ को तो वैसे भी कुछ नहीं मिलना था बेटे से। प्रेमचंद की कहानी बेटों 'वाली विधवा' साथ वाले लिंक में पढ़िए।

यदि 1956 में नेहरू सरकार हिन्दू उत्तराधिकार कानून न लायी होती तो पत्नी को कुछ नहीं था, माता का कुछ नहीं था, बेटी का कुछ नहीं था। उनको यह हक मिल जाने का हिन्दू पुरुष के अन्दर जो गुस्सा है उसे किसने अभी तक जीवित रक्खा है? तलाशिये उन्हें और उनके माथे पर पहचान का निशान छाप दीजिए।

"पत्नी मैडल ले कर मायके चली गयी", यह सहज वाक्य है? सारा मीडिया इसे किस्सा क्यों बना रहा है। मीडिया के चेहरे से हिन्दू पुरुष वाला गुस्सा क्यों चू रहा है? सड़ांध आ रही है इस पसीने से?
 
एक आदमी शादी करता है और तीन माह बाद पत्नी से कहता है गृहस्थ होना उसके बस का नहीं है, वह तो कुछ बड़ा करने को बना है और उसे हमेशा के लिए मायके चले जाने को कह देता है। वह स्त्री बरसों बाद भी उस पुरुष का नाम माथे पर चिपकाए बैठी है। क्या इस से किसी को सड़ांध नहीं आती। पूरी तरह सड़ गया है यह समाज, कीड़े बिलबिला रहे हैं।